क्या प्राचीन उदार व प्रगतिशील भारतीय समाज कट्टरता की ओर ढकेला जा रहा है?
क्या प्राचीन उदार व प्रगतिशील भारतीय समाज कट्टरता की ओर ढकेला जा रहा है?
आज का लेख प्रश्न से प्रारंभ कर रहे है। ज्ञात हो की, भारतीय समाज प्राचीन समय से ही एक उन्नत, उदार व प्रगतिशील समाज रहा है। इसके परिणाम सवरूप भीन्न भीन्न मत व सम्प्रदायों में विभक्त भारतीय समाज ने बहाय लोगों द्वारा "हिन्दू" संज्ञा से उद्बोधन को भी स्वीकार कर हिन्दू शब्द को स्वयं के आस्था का प्रतिक बना लिया है।
हमारे शास्त्रों में धर्म पालन पर बल दिया गया। यहाँ धर्म अर्थ कर्तव्यों से है। जैसे शाषकों का धर्म, नागरिकों का धर्म, ग्रहस्तों व ब्रम्ह्चारियों का धर्म। शास्त्रों में परमेश्वर की विभन्न रूपों में वर्णन हुवा है।
एकं सद विप्रा बहुधा वदन्ति।। - ऋग्वेद
एक ही परमं तत्व परमेश्वर को विद्वान् कई नामों से बोलते हैं। वैदिक विचारधारा के अनुसार आप उसे चाहे जो प्राकृतिक नाम दे सकते हैं। वह तो एक दिव्य, अनुपम अद्वितीय शक्ति की कल्पना इष्ट है, जो इस विश्व का उत्पादन, संरक्षण और संहरण करते हुए इसका संचालन कर रही हैं।
तदेजति तन्नेजति तददूरे तद्वनितके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाहतः।।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाहतः।।
वह परमात्मा चलता भी है व नहीं भी चलता, अर्थात वह कूटस्थ होते हुए सर्वव्यापक है। वह दूर भी है व पास भी। वह इस समस्त जगत के अन्दर भी है व बाहर भी है अर्थात ऐसा कोई स्थान नहीं जहां परमात्मा न हो।
इन्द्रं मित्रं वरुणमगिनमाहुरथो द्विव्यः स सुपर्णो गरुत्मान।
एकं सद विप्रा बहुधा वदन्त्यगिनं यमं मातारिश्वानमाहुः।।
एकं सद विप्रा बहुधा वदन्त्यगिनं यमं मातारिश्वानमाहुः।।
वेद
की दृष्टी में परम-तत्त्व के नाम का कोई आग्रह नहीं हैं। उसे तो परमेश्वर -
भगवान के अतिरिक्त ओर भी किसी नाम या मानवीय सम्बन्ध अर्थात माता, पिता,
भाई, सखा, गुरु या राजा के नाम से पुकार सकते हैं। वह तो परमं सत्य है,
सलिल है, यह अव्यक्त, अस्पर्श, अरूप तथा अगन्ध अमृत हैं।
निष्कार
हम भारतवंशी उदार विचारधारावाले रहें है, इसी कारण यह धरा कई पंथो की जन्मभूमि रही व अन्य भाइय पंथो की शरणस्थली रही। यहाँ कई अध्यात्म विचार पल्वित हुवे।
विगत सदियों में भारत व भारतवंशियों का आक्रांताओं ने कतिपय शोषण, अत्याचार व भारतीय विचार का नाश करने का प्रयास किया। उनकी कट्टरपंथी विचारधारा के चलते इस धरा के वैभव व संस्कृति को धक्का लगा है। हाँ! यहाँ "धक्का" शब्द का प्रयाग किया गया है, "ध्वस्त" का नहीं। धक्के लगने के पश्चात संभला जा सकता है, वरन ध्वस्त होने पर तो नष्ट होना है। हम अपने मूल वेदोप्त (ज्ञानोंप्त) विचार का ही अनुसरण करें तो पुनः सुश्रृंगारित होंगे। किन्तु आक्रांताओं के कट्टरपंथ का अनुसरण कर कट्टरपंथी होगये तो हम भारतवंशी ध्वस्त हुए ही समझें।
क्या सदियों के अत्याचार का आक्रोश कट्टरपंथी बनने से उचित होगा?

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